Tuesday, March 04, 2008

पगली

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Written after listening to a friend's feelings for a girl.

वो
लड़की जब अपने हाथों की मेहँदी को दिखलाती है
वो हंसी जो उसके होंठों से आंखों तक फैली जाती है
और चेहरे पे उसके आती है हया की सुर्खी सी रंगत
तब मैं मन में अपनी किस्मत से शिकवे कराने लगता हूँ

जब वो लड़ती है और मेरे रुकने की जिद कर जाती है
और फिर मुझको बेचैन देख कर मन ही मन मुस्काती है
फिर दांतों के कोने से जब आँचल को सीने लगती है
उसका ये रूप न जाने क्यों आंखों में भरने लगता हूँ

यूँ तो भोली है, पगली है, सीधी और अनजान है वो,
ऐसे में पर लगता है क्यों की शायद मेरी जान है वो
उसकी मेहँदी में क्यों अपना ही नाम दिखाई देता है
क्यों उसकी हर एक बात को ही मैं प्यार समझने लगता हूँ

क्या बात है दिल में क्या जानूँ, क्यों सोच में पड़ने लगता हूँ
अब तो अक्सर उस से क्या, अपने आप से डरने लगता हूँ
अब जब चुभती है बात वही, या दर्द से मरने लगता हूँ
तब चाँद से बातें करता हूँ और रात से लड़ने लगता हूँ
तब चाँद से बातें करता हूँ और रात से लड़ने लगता हूँ